वीडियो जानकारी: 09.11.23, गीता समागम, ग्रेटर नॉएडा
प्रसंग:
~ झूठी पहचान से नुकसान क्या हैं?
~ कैसे खुद की मान्यताएँ समझने में बाधा है?
~ कौन सच नहीं देख सकता?
~ कामना कभी शांत क्यों नहीं होती?
~ कैसे संसार अहंकार का विस्तार है?
~ हमें क्या दिखाई देता है?
भवोऽयं भावनामात्त्रो न किंचित् परमर्थतः । नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम् ॥
~ अष्टावक्र गीता, 18.4
जागो लोगों मत सुवो, ना करो नींद से प्यार। जैसे सपना रैन का, ऐसा यह संसार।।
~ संत कबीर
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शी मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥
जिस प्रकार अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, दर्पण धूल से ढका रहता है और उदरस्थ गर्भ जरायु से ढका रहता है (माँ के गर्भ में जो बच्चा होता है वो झिल्ली और उसके भीतर पानी से ढका रहता है), उसी तरह 'काम' से विवेक और ज्ञान ढका रहता है। ~ ~ श्रीमद्भगवद्गीता, 3.38
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।
~ रामचरितमानस
संसार के कुलज्ञान के, मूल में बस काम है नित्य हो निष्काम हो निर्द्वद हो, जो सत्यस्थ है आत्मवान है
~ श्रीमद्भगवद्गीता, 3.13 (आचार्य प्रशांत द्वारा काव्यात्मक अर्थ)
संगीत: मिलिंद दाते
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